Sunday, January 25, 2015

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म (Stories from Bhagwat Puran)


किसी समय मारीचिनन्दन कश्यप जी यज्ञ पुरुष भगवान को प्रसन्न करने के लिए खीर की आहुति देकर उनकी आराधना करने के पश्चात् सन्ध्याकाल में अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर एकान्त में बैठे थे। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से कश्यप जी के निकट आईं और स्वयं के साथ रमण करने का अनुरोध करते हुए कहा, "मैं आपके समान तेजस्वी पुत्र चाहती हूँ।"

कश्यप जी ने कहा, "प्रिये! मैं तुम्हें तुम्हारी कामना के अनुसार तेजस्वी पुत्र अवश्य प्रदान करूँगा, किन्तु अभी एक प्रहर प्रतीक्षा करो। यह संध्याकाल पुत्र प्राप्ति करने का नहीं है। इस समय भूतनाथ भगवान शंकर अपने गणों के साथ विचरण करते हैं। संध्याकाल में रमण करने से भगवान शंकर अप्रसन्न होंगे। संध्याकाल तो संध्यावंदन तथा भगवत् पूजन का काल होता है।"

किन्तु कामातुर दिति की समझ में कश्यप जी की बात नहीं आई और वह नाना भाँति के हाव-भाव प्रदर्शित कर रमण के लिए प्रेरित करने लगी। दैव इच्छा को प्रबल मानकर कश्यप ऋषि ने दिति के साथ रमण किया। जिसके परिणामस्वरूप दिति ने गर्भधारण किया।

दिति की कामेच्छा तृप्त होने पर तथा उसके सामान्य हो जाने पर कश्यप ऋषि ने कहा, "देवि! तुमने काम वासना में लिप्त होने के कारण मेरी बात नहीं मानी। असमय में भोग करने के कारण तुम्हारी कोख में शापिप जय और विजय दो भयंकर अमंगलकारी पुत्र के रूप में आ गये हैं जो अपने अत्याचारों से निरपराध प्राणियों को कष्ट देंगे और धर्म का नाश करेंगे। स्वयं भगवान विष्णु अवतार लेकर उनका संहार करेंगे।

इस प्रकार से हिरन्याक्ष एवं हिरण्यकश्यपु का जन्म हुआ।

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