Sunday, February 08, 2015

कर्दम ऋषि का देवहूति के साथ विवाह (Stories from Bhagwat Puran)

कर्दम ऋषि सरस्वती नदी के तट पर आश्रम बना कर निवास करते थे तथा भगवान की भक्ति में अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिया और वर माँगने के लिए कहा।

कर्दम ऋषि बोले, "हे प्रभो! आपके दर्शन हो जाने के परिणामस्वरूप मुझे मोक्ष की प्राप्ति तो होगी ही। मोक्ष प्राप्ति के साथ ही मुझे भोग प्राप्ति की भी इच्छा है। कृपा करके आप मेरी इस कामना को पूर्ण करें।"

भगवान विष्णु ने कहा, "हे कर्दम! तुम्हारी यह इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। समय आने पर मनु तथा शतरूपा की पुत्री देवहूति, जो कि यौवन, शील एवं गुणों में अद्वितीय है, के साथ तुम्हारा विवाह होगा और तुम अपनी इच्छानुसार गृहस्थ जीवन का आनन्द भोगोगे। देवहूति के गर्भ से नौ कन्याएँ जन्म लेंगी जो कि मारीचि आदि ऋषियों के साथ विवाह करके पुत्र उत्पन्न करेंगी। कुछ काल बाद मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतरित होकर सांख्य शास्त्र का उपदेश करूँगा।"

इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।

कर्दम ऋषि सरस्वती नदी के तट पर अपने आश्रम में निवास करते हुए काल की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् मनु अपनी पत्नी शतरूपा और पुत्री देवहूति के साथ विचरण करते हुए कर्दम ऋषि के आश्रम पहुँचे। कर्दम ऋषि के तप से देदीप्यमान शरीर तथा सौन्दर्य को देखकर मनु अत्यन्त प्रसन्न हुए और कर्दम ऋषि के साथ अपनी कन्या देवहूति के पाणिग्रहण का प्रस्ताव किया जिसे कर्दम ऋषि ने प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार से कर्दम ऋषि का विवाह देवहूति के साथ हो गया।

Friday, January 30, 2015

हिरण्याक्ष का वध (carnage of Hiranyaksh - Stories from Bhagwat Puran)


हिरण्यकश्यपु (Hiranyakashyapu) और हिरण्याक्ष (Hiranyaksh) दोनों ही दैत्य जन्मते ही [देखें पिछला पोस्टः हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म (Stories from Bhagwat Puran)] शीघ्र बढ़ गये और उनका शरीर पर्वताकार हो गया। हिरण्यकश्यपु ने तक करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे वर प्राप्त कर अभय हो गया और तीनों लोकों को विजय करके एकछत्र राज्य करने लगा। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष उसकी आज्ञा का पालन करते हुए शत्रुओं का नाश करने लगा।

एक दिन घूमते-घूमते हिरण्याक्ष वरुण पुरी पहुँच गया और वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुए कहने लगा, "हे वरुण देव! आपने जगत समस्त दैत्यों और दानवों को जीता है, अब आप मुझसे युद्ध करके विजय प्राप्त कीजिए।

हिरण्याक्ष की बात सुनकर वरुण देव को क्रोध तो बहुत आया किन्तु समय को समझते हुए उन्होंने हिरण्याक्ष से कहा, "हे हिरण्याक्ष! मैं आप जैसे बलशाली वीर से युद्ध करने योग्य नहीं हूँ। भगवान विष्णु ने मुझसे अधिक दैत्यों और दानवों को युद्ध में परास्त किया है, आपको उन्हीं के पास जाकर युद्ध की याचना करना चाहिए। वे ही आपकी इच्छा को पूर्ण करेंगे।"

वरुण देव की बात सुनकर हिरण्याक्ष अति प्रसन्न हुआ और रसातल की ओर चला गया। जब वह रसातल की ओर जा रहा था उसी समय भगवान विष्णु वाराह अवतार धारण कर पृथ्वी को रसातल से ला रहे थे। भगवान वाराह को पृथ्वी को ले जाते देख कर हिरण्याक्ष ने ललकार कर कहा, "अरे वन्य पशु! तू जल में कहाँ से आ गया? मूर्ख पशु, तू पृथ्वी को कहाँ ले जाए जा रहा है? इस पृथ्वी को तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया था, यह हमारी संपत्ति है। मेरे होते हुए तू पृथ्वी को यहाँ से नहीं ले जा सकता।"

हिरण्याक्ष के वचन सुनकर भगवान वाराह को अत्यन्त क्रोध आया जिससे उनकी दाढ़ों पर रखी पृथ्वी काँपने लगी। अतः उन्होंने वहाँ पर पृथ्वी को छोड़ कर युद्ध करना उचित नहीं समझा और गजराज की भाँति शीघ्रतापूर्वक जल से बाहर निकले। हिरण्याक्ष भी ग्राह के समान उनके पीछे भागने लगा। भागते हुए वह चिल्लाता जा रहा था, "रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती! आ मुझसे युद्ध कर।"

वाराह भगवान ने जल से बाहर आकर पृथ्वी को योग्य स्थान पर स्थापित कर उसे अपनी आधार शक्ति प्रदान किया। तब तक हिरण्याक्ष भी वहाँ आ पहुँचा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष के मध्य घोर युद्ध होने लगा। अभिजित नक्षत्र के आते ही वाराह रूप भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष पर सुदर्शन चक्र चला दिया और हिरण्याक्ष के प्राण-पखेरू उड़ गये।

Sunday, January 25, 2015

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म (Stories from Bhagwat Puran)


किसी समय मारीचिनन्दन कश्यप जी यज्ञ पुरुष भगवान को प्रसन्न करने के लिए खीर की आहुति देकर उनकी आराधना करने के पश्चात् सन्ध्याकाल में अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर एकान्त में बैठे थे। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से कश्यप जी के निकट आईं और स्वयं के साथ रमण करने का अनुरोध करते हुए कहा, "मैं आपके समान तेजस्वी पुत्र चाहती हूँ।"

कश्यप जी ने कहा, "प्रिये! मैं तुम्हें तुम्हारी कामना के अनुसार तेजस्वी पुत्र अवश्य प्रदान करूँगा, किन्तु अभी एक प्रहर प्रतीक्षा करो। यह संध्याकाल पुत्र प्राप्ति करने का नहीं है। इस समय भूतनाथ भगवान शंकर अपने गणों के साथ विचरण करते हैं। संध्याकाल में रमण करने से भगवान शंकर अप्रसन्न होंगे। संध्याकाल तो संध्यावंदन तथा भगवत् पूजन का काल होता है।"

किन्तु कामातुर दिति की समझ में कश्यप जी की बात नहीं आई और वह नाना भाँति के हाव-भाव प्रदर्शित कर रमण के लिए प्रेरित करने लगी। दैव इच्छा को प्रबल मानकर कश्यप ऋषि ने दिति के साथ रमण किया। जिसके परिणामस्वरूप दिति ने गर्भधारण किया।

दिति की कामेच्छा तृप्त होने पर तथा उसके सामान्य हो जाने पर कश्यप ऋषि ने कहा, "देवि! तुमने काम वासना में लिप्त होने के कारण मेरी बात नहीं मानी। असमय में भोग करने के कारण तुम्हारी कोख में शापिप जय और विजय दो भयंकर अमंगलकारी पुत्र के रूप में आ गये हैं जो अपने अत्याचारों से निरपराध प्राणियों को कष्ट देंगे और धर्म का नाश करेंगे। स्वयं भगवान विष्णु अवतार लेकर उनका संहार करेंगे।

इस प्रकार से हिरन्याक्ष एवं हिरण्यकश्यपु का जन्म हुआ।

Saturday, January 24, 2015

जय और विजय को शाप (Curse on Jay and Vijay - Stories from Bhagwat Puran)

एक बार ब्रह्मा जी के मानसपुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनतकुमार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु बैकुण्ठधाम पहुँचे।

जब वे भगवान विष्णु के ड्यौढ़ी पर पहुँचे तो जय और विजय नामक दो द्वारपालों ने उन्हें रोककर कहा कि इस समय भगवान विष्णु विश्राम कर रहे हैं, अतः आप लोग भीतर नहीं जा सकते।

यद्यपि वे चारों ऋषिगण अत्यधिक आयु के थे, किन्तु उनके तप के प्रभाव से वे बालक नजर आते थे, इसी कारण से जय और विजय उन्हें पहचान नहीं पाये थे और उन्हें साधारण बालक ही समझा था।

जय और विजय के द्वारा इस प्रकार से रोके जाने पर ऋषिगणों ने क्रोधित होकर कहा, "अरे मूर्खों! हम भगवान विष्णु के भक्त हैं और भगवान विष्णु तो अपने भक्तों के लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं। तुम दोनों अपनी कुबुद्धि के कारण हम लोगो को भगवान विष्णु के दर्शन से विमुख रखना चाहते हो। ऐसे कुबुद्धि वाले विष्णुलोक में रहने के योग्य नहीं है। अतः हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम दोनों का देवत्व समाप्त हो जाये और तुम दोनों भूलोक में जाकर पापमय योनियों में जन्म लेकर अपने पाप का फल भोगो।"

सनकादिक ऋषियों के इस घोर शाप को सुनकर जय और विजय भयभीत होकर उनसे क्षमा याचना करने लगे। इसी समय भगवान विष्णु भी वहाँ पर आ गये। जय और विजय भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे कि वे ऋषियों से अपना शाप वापस ले लेने का अनुरोध करें।

भगवान विष्णु ने उन दोनों से कहा, "ऋषियों का शाप कदापि व्यर्थ नहीं जा सकता। तुम दोनों को भूलोक में जाकर जन्म अवश्य लेना पड़ेगा। अपने अहंकार का फल भोग लेने के बाद तुम दोनों पुनः मेरे पास वापस आवोगे। तुम दोनों के पास यहाँ वापस आने के लिए दो विकल्प है, पहला यह कि यदि तुम दोनों भूलोक में मेरे भक्त बन कर रहोगे तो सात जन्मों के बाद यहाँ वापस आवोगे और दूसरा यह कि यदि भूलोक में जाकर मुझसे शत्रुता रखोगे तो तीन जन्मों के बाद तुम दोनों यहाँ वापस आवोगे क्योंकि उन तीनों जन्मों में मैं ही तुम्हारा संहार करूँगा।"

जय और विजय सात जन्मों तक पृथ्वीलोक में नहीं रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने दूसरे विकल्प को मान लिया।

उन्हीं जय और विजय भूलोक में सत् युग में अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु, त्रेता युग में अपने दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा द्वापर में अपने तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र बने।

Friday, January 23, 2015

वाराह अवतार (Varah Avatar)


पिछले पोस्ट (ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना) में बताए जितनी सृष्टि की रच लेने के बाद ब्रह्मा जी विचार करने लगे कि मेरी सृष्टि की वृद्धि नहीं हो पा रही है। जब वे इस विचार में मग्न थे तो उनका शरीर दो भागों में विभक्त हो गया जिनके नाम 'का' और 'या' (काया) हुये।। एक भाग से पुरुष उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से स्त्री। पुरुष का नाम स्वयंभुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था।

ब्रह्मा जी ने स्वयंभुव मनु को आज्ञा दी, "हे पुत्र! तुम अपनी भार्या शतरूपा से सन्तान उत्पन्न करो और श्रमपूर्क इस पृथ्वी का पालन करो।"

उनकी आज्ञा सुनकर स्वयंभुव मनु बोले, "हे पिता! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा, किन्तु पृथ्वी तो प्रलयकालीन जल में निमग्न है, मेरी सन्तानें अर्थात् प्रजा निवास कहाँ करेगी? कृपा करके आप पृथ्वी को जल से बाहर निकालने का प्रयत्न करें।"

स्वयंभुव मनु की बात सुनकर ब्रह्मा जी कुछ क्षणों के लिए विचारमग्न हो गए। उसी क्षण उन्हें एक छींक आई और उनके नासिका छिद्र से अंगुष्ठ प्रमाण का एक प्राणी बाहर आ गिरा। देखते ही देखते वह प्राणी पर्वताकार हो गया और शूकर के रूप में घुर्राने लगा। उसे देखकर ब्रह्मा जी समझ गए कि भगवान विष्णु ने पृथ्वी को जल से बाहर लाने के लिए वाराह का अवतार धारण कर लिया है।

भगवान वाराह प्रलयकालीन अथाह जल में कूद कर रसातल में जा पहुँचे और पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर बाहर के लिए निकले। उन्हें पृथ्वी को ले जाते देख कर दैत्य हिरण्याक्ष ने ललकार का गदा का प्रहार किया। वाराह भगवान ने उस प्रहार को रोककर उस दैत्य का वध कर दिया। जब वाराह भगवान जल से निकले तो ब्रह्मा सहित मरीचि आदि मुनियों ने उनकी स्तुति की।

मुनियों द्वारा अपनी स्तुति से प्रसन्न वाराह भगवान ने रसातल से लाई हुई पृथ्वी को जल पर रख दिया और अन्तर्धान हो गये।

Thursday, January 22, 2015

ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना (Stories from Bhagwat Puran)

सुखसागर ग्रंथ के अनुसार ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम "मोह", "महामोह", "तामिश्र", "अन्धतामिश्र" और "अज्ञान" नामक पाँच वृत्तियाँ रचीं। किन्तु इन पापमयी रचनाओं को देखकर उन्हें स्वयं बड़ा पश्चाताप हुआ। तब उन्होंने भगवान का तप करके एक दूसरी सृष्टि की रचना की जिसमें चार अर्ध्वरेता सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनतकुमार तथा निवृत्ति परायण चार मनु उत्पन्न किये।

ब्रह्मा जी ने अपने चारों पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनतकुमार को प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी। किन्तु वे चारों निवृत्ति परायण थे और भग्वद भक्ति तथा तपस्या को उत्तम मानते थे, अतः वे ब्रह्मा जी की आज्ञा पालन करने में असमर्थ रहे। अपनी आज्ञा का उल्लंघन होता देख ब्रह्मा जी को अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ। यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध को शमन करने का प्रयास किया किन्तु वह क्रोध भौहों के मध्य से तत्काल एक नील लोहित शिशु के रूप में उत्पन्न हो गया। वह शिशु रुद्र के नाम से विख्या हुआ और कालान्तर में वे देवाधिदेव महादेव कहलाये।

ब्रह्मा जी ने उस बालक से कहा, "हे रुद्र! तुम हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तप में वास करोगे। तुम्हारे अनेकों नाम हैं जिनमें मन्यु, मनु, मनिहास, मनान्, शिव, रितध्वज, उत्प्रेता, वामदेव, काल भैरव तथा धृतवृत विख्यात होंगे। धी, वृत्ति, उषना, उमा, नियुत, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा एवं दीक्षा - ये एकादश रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। हे शिव, तुम अपनी इन पत्नियों से प्रजा की उत्पत्ति करो। इस काल में तुम प्रजापति हो।"

ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनकर भगवान नील लोहित रुद्र ने बल, आकार तथा स्वभाव में अपने ही तुल्य प्रजा की उत्पत्ति की। रुद्रदेव के द्वारा उत्पन्न हुई प्रजा समस्त जगत को खाने लगी। यह देखकर ब्रह्मा जी को अत्यन्त खेद हुआ और वे शिव से बोले, "हे महादेव! तुम्हारे द्वारा उत्पन्न की हुई प्रजा तो मेरे द्वारा उत्पन्न प्रजा को खाये जा रही है। मुझे ऐसी सृष्टि की आवश्यकता नहीं है, तुम तप के द्वारा सौम्य एवं उत्तम प्रजा उत्पन्न करो।"

ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनकर रुद्रदेव अति प्रसन्न होकर तपस्या के लिए वन को चले गये।

इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने संकल्प से दस पुत्रों की उत्पत्ति की जिनके नाम मरीच, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और नारद थे। ये दसों ब्रह्मा जी के अंगों से उत्पन्न हुए। दक्ष की अंगूठे से, वसिष्ठ की प्राण से, भृगु की त्वचा से, कृतु की हाथ से, पुलह की नाभि से, पुलस्त्य की कान से, अंगिरा की मुख से अत्रि की नेत्रों से और मरीच की मन से उत्पत्ति हुई।

ब्रह्मा जी के दाहिने स्तन से धर्म की उत्पत्ति हुई जिससे नर-नारायण के रूप में स्वयं भगवान प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के पीठ से अधर्म उत्पन्न हुआ। हृदय से काम, दोनों भौहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओठ से लोभ, लिंग से समुद्र, गुदा से विऋति और छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुए।

बह्मा जी की कन्या सरस्वती इतनी सुन्दर और सुकुमार थी की एक बार स्वयं ब्रह्मा जी उस कन्या को देखकर अति कामित हो उठे। उनका ऐसा अधर्मपूर्ण संकल्प उनके पुत्रों ने उन्हें समझाया। तब ब्रह्मा जी ने अति लज्जित होकर अपना वह शरीर त्याग दिया। उसी त्यागे गये शरीर को कुहरा तथा अन्धकार के रूप में दिशाओं ने ग्रहण कर लिया।

इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने पूर्व वाले मुख से ऋग्‌वेद की, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद की, पश्चिम वाले मुख से सामवेद की और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की रचना की। फिर शास्त्र, इज्या, स्तुति, स्तोम्ब, प्रायश्चित आदि कर्मों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार से क्रमशः आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद उपवेदों की रचना हुई। इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने मुख से इतिहास-पुराण पाँचवा वेद उत्पन्न किया तथा योग, विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म के चार चरण तथा चारों आश्रम उत्पन्न किये।

आश्रमों की वृत्तियाँ इस प्रकार हैं - सावित्र वृत्ति, प्रजापत्य वृत्ति, ब्रह्मवृत्ति तथा वृहत् वृत्ति ब्रह्मचारी के लिए बनाई गई हैं। वार्त वृत्ति, संचय वृत्ति, शालीन वृत्ति तथा शिलोच्छ वृत्ति गृहस्थ के लिए हैं। वैखानस, बालखिल्य, औदुम्बर तथा फैनप वृत्तियाँ वानप्रस्थों के लिए हैं। कुटीचक्र, बहूदक, हंस तथा परमहंस वृत्तियाँ सन्यासियों के लिए हैं।

आन्वीक्षिकी, त्रया, वार्ता तथा दण्डनीति ब्रह्मा जी के चारों मुखों से उत्पन्न हुईं। उनके हृदय से ओंका प्रकट हुआ। वर्ण, स्वर, छन्द आदि भी उनके अंगों से प्रकट हुए। रोम से आष्णिक छन्द, त्वचा से गायत्री छन्द, मांस से त्रिष्टुप छन्द, स्नायु से अनुष्टुप छन्द, हड्डियों से जगती छन्द, मज्जा से पंक्ति छन्द तथा प्राणों से वृहती छन्द उत्पन्न हुए। ब्रह्मा जी के जीव से 'क' से लेकर 'प' वर्ण, शरीर से स्वर, इन्द्रियों से ऊष्म वर्ण तथा अन्तःस्थल से य, र, ल, व उत्पन्न हुए। ब्रह्मा जी की क्रीड़ा से षड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद संगीत स्वरों की उत्पत्ति हुई।

Wednesday, January 21, 2015

भगवान विष्णु के 24 अवतार (24 incarnations of Lord Vishnu)


सुखसागर के अनुसार भगवान विष्णु ने निम्न 24 अवतार लिये हैं -
  • वाराह अवतार (Varah Avatar) - प्रलय काल में जब पृथ्वी जल में समा गई थी तब पृथ्वी को जल से निकालने के लिए भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण किया था और हिरण्याक्ष नामक दैत्य का संहार किया था।
  • सुयज्ञ अवतार (Suyagya Avatar) - दूसरी बार भगवान विष्णु ने सचि प्रजापति की आकृति नामक पत्नी के गर्भ से सुयज्ञ के नाम से अवतार धारण किया तथा दक्षिणा नामक पत्नी द्वारा सुयम नाम के बहुत से देवता प्रकट किये। उस अवतार में देवताओं के अनेक संकट दूर करके उनके कष्ट हरे और हरि के नाम से विख्यात हुए।
  • कपिल अवतार (Kapil Avatar) - तीसरी बार कर्दम प्रजापति की पत्नी देवहूति से कपिल नाम से भगवान विष्णु अवतरित हुए तथा सांख्य योग का उपदेश दिया।
  • दत्तात्रयेय अवतार (Dattatrayey Avatar) - चौथी बार महर्षि अत्रि की अनुसुइया नाम की पत्नी से दत्तात्रयेय अवतार धारण कर यदु और सहस्त्रार्जुन को योग का उपदेश दिया।
  • सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत कुमार अवतार (Sanak, Sanandan, Sanatan & Sanat Kumar Avatar) - पाँचवी बार भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के घोर तप से प्रसन्न होकर उनके चार पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत कुमार के रूप में अवतार धारण कर अपने उपदेशों से प्रलय काल में भूले जा चुके ज्ञान को पुनः ऋषियों को समझाया।
  • नर-नारायण अवतार (Nar-Narayan Avatar) - छठवीं बार भगवान विष्णु ने दक्ष प्रजापति की कन्या मूर्ति के गर्भ से नर-नारायण अवतार धारण किया।
  • सातवीं बार भगवान विष्णु ने उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव को दर्शन देने के लिए अवतार धारण किया।
  • आठवीं बार भगवान विष्णु ने ब्राह्मणों को अपनी हुंकार से मार डाले गये पापी राजा बेन के शरीर के मन्थन से भगवान विष्णु पृथु के नाम से प्रकट हुए।
  • ऋषभ देव अवतार (Rishabh Dev Avatar) - नौवीं बार राज नाभि की पतिव्रता पत्नी सुदेवी के गर्भ से भगवान विष्णु ऋषभ देव के नाम से अवतरित हुए।
  • हयग्रीव अवतार (Haygreev Avatar) - दसवीं बार भगवान विष्णु ने हयग्रवी के रूप में अवतार धारण किया।
  • ग्यारहवीं बार भगवान विष्णु ने चाक्षुष मन्वन्तर के समाप्त होने पर राजर्षि सत्यव्रत ने मत्स्य भगवान के दर्शन किये।
  • कच्छप अवतार (Kachchhap Avatar) - बारहवीं बार क्षीरसागर मन्थन करते समय भगवान ने कच्छप अवतार धारण किया और मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया।
  • नृसिंह अवतार (Nrisingh Avatar) - तेरहवीं बार भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यपु दैत्य का संहार करने के लिए नृसिंह अवतार धारण करके भक्त प्रह्लाद की रक्षा की।
  • चौदहवीं बार भगवान विष्णु ने गज और ग्राह के युद्ध के दौरान गज की प्रार्थना पर गज की रक्षा करने के लिए अवतार धारण किया।
  • वामन अवतार (Vaman Avatar) - पंद्रहवीं बार भगवान विष्णु ने इन्द्र तथा देवताओं की प्रार्थना सुनकर बालि से इन्द्र को उसका राज्य वापस दिलाने के लिए वामन अवतार धारण किया।
  • सोलहवीं बार भगवान विष्णु ने नारद की भक्ति से प्रसन्न होकर हंस अवतार धारण किया।
  • सत्रहवीं बार भगवान विष्णु ने मनुष्यों की रक्षा के लिए स्वयंभुव मनु का अवतार धारण किया।
  • धन्वन्तरि अवतार (Dhanvantari Avatar) - अठारहवीं बार भगवान विष्णु ने आयुर्वेद की रचना करने के लिए धन्वन्तरि अवतार धारण किया।
  • परशुराम अवतार (Parashuram Avatar) - उन्नीसवीं बार क्षत्रियों के ब्राह्मण द्रोही हो जाने पर धर्म की मर्यादा की रक्षा करने के लिए परशुराम अवतार धारण किया।
  • राम अवतार (Ram Avatar) - बीसवीं बार भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में रावण तथा उसके सहयोगी दैत्यों के अत्याचार से मनुष्यों को मुक्ति दिलाने के लिए श्री राम अवतार धारण किया।
  • कृष्ण अवतार (Krishna Avatar) - इक्सीवीं बार भगवान विष्णु ने द्वापर युग में दैत्यों के अत्याचार का दमन करने के लिए श्री कृष्ण अवतार धारण किया।
  • बुद्ध अवतार (Buddha Avatar) - बाइसवीं बार भगवान विष्णु ने बुद्ध के रूप में अवतार धारण किया।
  • कल्कि अवतार (Kalki Avatar) - तेईसवीं बार भगवान विष्णु कलियुग में कल्कि अवतार धारण करेंगे।
  • भगवान विष्णु स्वयं सदा के लिए अपने चौबीसवें अवतार हैं।