Sunday, February 08, 2015

कर्दम ऋषि का देवहूति के साथ विवाह (Stories from Bhagwat Puran)

कर्दम ऋषि सरस्वती नदी के तट पर आश्रम बना कर निवास करते थे तथा भगवान की भक्ति में अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिया और वर माँगने के लिए कहा।

कर्दम ऋषि बोले, "हे प्रभो! आपके दर्शन हो जाने के परिणामस्वरूप मुझे मोक्ष की प्राप्ति तो होगी ही। मोक्ष प्राप्ति के साथ ही मुझे भोग प्राप्ति की भी इच्छा है। कृपा करके आप मेरी इस कामना को पूर्ण करें।"

भगवान विष्णु ने कहा, "हे कर्दम! तुम्हारी यह इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। समय आने पर मनु तथा शतरूपा की पुत्री देवहूति, जो कि यौवन, शील एवं गुणों में अद्वितीय है, के साथ तुम्हारा विवाह होगा और तुम अपनी इच्छानुसार गृहस्थ जीवन का आनन्द भोगोगे। देवहूति के गर्भ से नौ कन्याएँ जन्म लेंगी जो कि मारीचि आदि ऋषियों के साथ विवाह करके पुत्र उत्पन्न करेंगी। कुछ काल बाद मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतरित होकर सांख्य शास्त्र का उपदेश करूँगा।"

इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।

कर्दम ऋषि सरस्वती नदी के तट पर अपने आश्रम में निवास करते हुए काल की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् मनु अपनी पत्नी शतरूपा और पुत्री देवहूति के साथ विचरण करते हुए कर्दम ऋषि के आश्रम पहुँचे। कर्दम ऋषि के तप से देदीप्यमान शरीर तथा सौन्दर्य को देखकर मनु अत्यन्त प्रसन्न हुए और कर्दम ऋषि के साथ अपनी कन्या देवहूति के पाणिग्रहण का प्रस्ताव किया जिसे कर्दम ऋषि ने प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार से कर्दम ऋषि का विवाह देवहूति के साथ हो गया।

Friday, January 30, 2015

हिरण्याक्ष का वध (carnage of Hiranyaksh - Stories from Bhagwat Puran)


हिरण्यकश्यपु (Hiranyakashyapu) और हिरण्याक्ष (Hiranyaksh) दोनों ही दैत्य जन्मते ही [देखें पिछला पोस्टः हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म (Stories from Bhagwat Puran)] शीघ्र बढ़ गये और उनका शरीर पर्वताकार हो गया। हिरण्यकश्यपु ने तक करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे वर प्राप्त कर अभय हो गया और तीनों लोकों को विजय करके एकछत्र राज्य करने लगा। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष उसकी आज्ञा का पालन करते हुए शत्रुओं का नाश करने लगा।

एक दिन घूमते-घूमते हिरण्याक्ष वरुण पुरी पहुँच गया और वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुए कहने लगा, "हे वरुण देव! आपने जगत समस्त दैत्यों और दानवों को जीता है, अब आप मुझसे युद्ध करके विजय प्राप्त कीजिए।

हिरण्याक्ष की बात सुनकर वरुण देव को क्रोध तो बहुत आया किन्तु समय को समझते हुए उन्होंने हिरण्याक्ष से कहा, "हे हिरण्याक्ष! मैं आप जैसे बलशाली वीर से युद्ध करने योग्य नहीं हूँ। भगवान विष्णु ने मुझसे अधिक दैत्यों और दानवों को युद्ध में परास्त किया है, आपको उन्हीं के पास जाकर युद्ध की याचना करना चाहिए। वे ही आपकी इच्छा को पूर्ण करेंगे।"

वरुण देव की बात सुनकर हिरण्याक्ष अति प्रसन्न हुआ और रसातल की ओर चला गया। जब वह रसातल की ओर जा रहा था उसी समय भगवान विष्णु वाराह अवतार धारण कर पृथ्वी को रसातल से ला रहे थे। भगवान वाराह को पृथ्वी को ले जाते देख कर हिरण्याक्ष ने ललकार कर कहा, "अरे वन्य पशु! तू जल में कहाँ से आ गया? मूर्ख पशु, तू पृथ्वी को कहाँ ले जाए जा रहा है? इस पृथ्वी को तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया था, यह हमारी संपत्ति है। मेरे होते हुए तू पृथ्वी को यहाँ से नहीं ले जा सकता।"

हिरण्याक्ष के वचन सुनकर भगवान वाराह को अत्यन्त क्रोध आया जिससे उनकी दाढ़ों पर रखी पृथ्वी काँपने लगी। अतः उन्होंने वहाँ पर पृथ्वी को छोड़ कर युद्ध करना उचित नहीं समझा और गजराज की भाँति शीघ्रतापूर्वक जल से बाहर निकले। हिरण्याक्ष भी ग्राह के समान उनके पीछे भागने लगा। भागते हुए वह चिल्लाता जा रहा था, "रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती! आ मुझसे युद्ध कर।"

वाराह भगवान ने जल से बाहर आकर पृथ्वी को योग्य स्थान पर स्थापित कर उसे अपनी आधार शक्ति प्रदान किया। तब तक हिरण्याक्ष भी वहाँ आ पहुँचा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष के मध्य घोर युद्ध होने लगा। अभिजित नक्षत्र के आते ही वाराह रूप भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष पर सुदर्शन चक्र चला दिया और हिरण्याक्ष के प्राण-पखेरू उड़ गये।

Sunday, January 25, 2015

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म (Stories from Bhagwat Puran)


किसी समय मारीचिनन्दन कश्यप जी यज्ञ पुरुष भगवान को प्रसन्न करने के लिए खीर की आहुति देकर उनकी आराधना करने के पश्चात् सन्ध्याकाल में अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर एकान्त में बैठे थे। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से कश्यप जी के निकट आईं और स्वयं के साथ रमण करने का अनुरोध करते हुए कहा, "मैं आपके समान तेजस्वी पुत्र चाहती हूँ।"

कश्यप जी ने कहा, "प्रिये! मैं तुम्हें तुम्हारी कामना के अनुसार तेजस्वी पुत्र अवश्य प्रदान करूँगा, किन्तु अभी एक प्रहर प्रतीक्षा करो। यह संध्याकाल पुत्र प्राप्ति करने का नहीं है। इस समय भूतनाथ भगवान शंकर अपने गणों के साथ विचरण करते हैं। संध्याकाल में रमण करने से भगवान शंकर अप्रसन्न होंगे। संध्याकाल तो संध्यावंदन तथा भगवत् पूजन का काल होता है।"

किन्तु कामातुर दिति की समझ में कश्यप जी की बात नहीं आई और वह नाना भाँति के हाव-भाव प्रदर्शित कर रमण के लिए प्रेरित करने लगी। दैव इच्छा को प्रबल मानकर कश्यप ऋषि ने दिति के साथ रमण किया। जिसके परिणामस्वरूप दिति ने गर्भधारण किया।

दिति की कामेच्छा तृप्त होने पर तथा उसके सामान्य हो जाने पर कश्यप ऋषि ने कहा, "देवि! तुमने काम वासना में लिप्त होने के कारण मेरी बात नहीं मानी। असमय में भोग करने के कारण तुम्हारी कोख में शापिप जय और विजय दो भयंकर अमंगलकारी पुत्र के रूप में आ गये हैं जो अपने अत्याचारों से निरपराध प्राणियों को कष्ट देंगे और धर्म का नाश करेंगे। स्वयं भगवान विष्णु अवतार लेकर उनका संहार करेंगे।

इस प्रकार से हिरन्याक्ष एवं हिरण्यकश्यपु का जन्म हुआ।